कैसे.......जाता हूँ
इक जरा सी चाह में
इस क़दर बिखर जाता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? इतना लालची हो जाता हूँ।
खुद की परवाह इतनी करता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? इंसानियत भूल जाता हूँ।
अभी-अभी मिले प्यार में
इतना खो जाता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? माँ-बाप का प्यार भूल जाता हूँ।
आशिकी में गर कोई ना कह दे
तब इतना टूट जाता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? उसकी भावना ही भूल जाता हूँ।
अपनी हर गलती में
एक पंक्ति लिख देता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? यूँ ही छुट जाता हूँ।
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इस क़दर बिखर जाता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? इतना लालची हो जाता हूँ।
खुद की परवाह इतनी करता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? इंसानियत भूल जाता हूँ।
अभी-अभी मिले प्यार में
इतना खो जाता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? माँ-बाप का प्यार भूल जाता हूँ।
आशिकी में गर कोई ना कह दे
तब इतना टूट जाता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? उसकी भावना ही भूल जाता हूँ।
अपनी हर गलती में
एक पंक्ति लिख देता हूँ
कि समझ नहीं आता
कैसे? यूँ ही छुट जाता हूँ।
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